पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९८

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प्रेम-पूर्णिमा १९८ मै-मैं आपका एक तुच्छ सेवक हूँ, इस महान आदरक! पात्र नहीं। रमणी-आप मुझसे घृणा करते हैं। मैं-यह आपका मेरे साथ अन्याय है। मैं इस योग्य भी तो नही कि आपके तलुओंको ऑखोंसे लगाऊँ। आप दीपक हैं, मैं पतंग हूँ, मेरे लिए इतना ही बहुत है। रमणी नैराश्यपूर्ण क्रोधके साथ बैठ गयी और बोली- कास्तवमे आप निर्दयी हैं, मै ऐसा न समझती थी। आपमे अभीतक अपनी शिक्षाके कुसस्कार लिपटे हुए हैं, पुस्तको और सदाचारकी बेड़ी आपके पैरोंसे नही निकली। मैं शीघ्र ही अपने कमरेमे चला आया और चित्त के स्थिर होनेपर जब मै इस घटनापर विचार करने लगा तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि अग्नि कु डमें गिरते-गिरते बचा। कोई गुप्त शक्ति मेरी सहायक हो गयी। यह गुप्त शक्ति क्या थी? 4 मैं जिस कमरेमे ठहरा हुआ था उसके सामने झीलके दूसरी तरफ एक छोटा-सा झोपडा था। उसमे एक वृद्ध पुरुष रहा करते थे। उनकी कमर तो झुक गयी थी पर चेहरा तेजमय था। वह कभी कभी इस महल में आया करते थे 1 रमणी न जाने क्यों घृणा करती थी, मनमें उनसे डरती थी। उन्हे देखतेही घबरा जाती, मानो किसी असमञ्जसमे पडी हुई है। उसका मुख फीका पड़ जाता, जाकर अपने किसी गुप्त स्थानमे मुँह छिपा लेती, मुझे उसकी यह दशा देखकर कौतूहल होता था। कई बार उसने मुझसे भी उनकी चर्चा की थी, पर अत्यन्त अपमानके भाषसे,'