पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९९

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ज्वालामुखी वह मुझे उनसे दूर-दूर रहनेका उपदेश दिया करती और यदि कभी मुझे उनसे बातें करते देख लेती तो उसके माथेपर बल पड़ जाते थे। कई दिनोंतक मुझसे खुलकर न बोलती थी। उस रातको मुझे देरतक नीद नही आयी। उधेड़बुनमे पड़ा हुआ था। कभी जी चाहता आओ ऑख बन्द करके प्रेमरसका पान करें, ससारके पदार्थीका सुख भोगे, जो कुछ होगा देखा जायगा । जीवनमे ऐसे दिव्य अवसर कहाँ मिलते हैं। फिर आप ही-आप मन कुछ खिच जाता था, घृणा उत्पन्न हो जाती थी। रातके दस बजे होंगे कि हठात् मेरे कमरेका द्वार आप हो आप खुल गया और वही तेजस्वी पुरुष अन्दर आये । यद्यपि मै अपनी स्वामिनीके भयसे उनसे बहुत कम मिलता था पर उनके मुखपर ऐसी शान्ति थी और उनके भाव ऐसे पवित्र तथा कोमल थे कि हृदयमे उनके सतसङ्गकी उत्कठा होती थी। मैने उनका स्वागत किया और लाकर एक कुरसीपर बैठा दिया। उन्होने मेरी ओर दयापूर्ण भावसे देखकर कहा-मेरे आनेसे तुम्हे कष्ट तो नहीं हुआ? मैने सिर झुकाकर उत्तर दिया- आप जैसे महात्माओका दर्शन मेरे सौभाग्यकी बात है। महात्माजी निश्चिन्त होकर बोले-अच्छा, तो सुनो और सचेत हो जाओ, मै तुम्हे यही चेतावनी देनेके लिये आया हूँ। तुम्हारे ऊपर एक घोर विपत्ति आनेवाली है। तुम्हारे लिये इस समय इसके सिवाय और कोई उपाय नही है कि यहासे चले जाओ, यदि मेरी बात न मानोगे तो जीवन पर्यन्त कष्ट झेलोगे और इस माया जालसे कभी मुक्त न हो