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ईश्वरीय न्याय
 

क्यों भैया! वह गाँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपयेसे और उन्हींके वास्ते?

मुन्शीजी—लिया था तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गाँव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकती। डेढ़ सौ गाँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।

माता—बेटा, किसीके धन ज्यादा होता है तो वह फेंक थोड़े ही देता है। तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें क्या कहेगी। और दुनिया चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा चाहिये कि जिसकी गोद में इतने दिन पले, जिसका इतने दिनोंतक नमक खाया, अब उसीसे दगा करो। नारायणने तुम्हें क्या नहीं दिया? मजेसे खाते हो, पहनते हो, घर में नारायणका दिया चार पैसा है, बाल बच्चे हैं। और क्या चाहिये? मेरा कहना मानो, इस कलकका टीका अपने माथे न लगाओ। यह अजस मत लो। बरकत अपनी कमाई में होती है, हरामकी कौड़ी कभी नहीं फलती।

मुन्शीजी—ऊँह। ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनिया उन पर चलने लगे तो सारे काम बन्द हो जायँ। मैने इतने दिनोंतक इनकी सेवा की। मेरी ही बदौलत ऐसे ऐसे चार पाँच गाँव बढ़ गये। जबतक पण्डितजी थे, मेरी नीयतका मान था। मुझे आँख में धूल डालने की जरूरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गये मगर मुसम्मातके एक बीड़े पानकी भी कसम खाता हूँ, मेरी जातसे उनकी हजारों रुपये मासिककी बचत होती थी। क्या उनको इतनी समझ भी न थी कि