पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०१

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२०१ ज्वालामुखी एक दुर्बल, शक्तिहीन मनुष्य के गलेमें मुंह लगाये उसका रक्त चूस रहा था। एक ओर दो गिद्धकी सूरतवाले मनुष्य एक सड़ी हुई लाशपर बैठे उसका मास नोच रहे थे। एक जगह एक अज- गरकी सूरतका मनुष्य एक बालकको निगलना चाहता था, पर बालक उसके गले में अटका हुआ था। दोनों ही जमीनपर पड़े छटपटा रहे थे। एक जगह मैंने एक अत्यन्त पैशाचिक घटना देखी। दो नागिनको सूरतवाली स्त्रियाँ एक भेड़ियेकी सूरतवाले मनुष्य के गलेमें लिपटी हुई उसे काट रही थीं। वह मनुष्य घोर वेदनासे चिल्ला रहा था। मुझसे अब और न देखा गया। तुरन्त वहाँसे भागा और गिरता पड़ता अपने कमरेमे आकर दम लिया। महात्माजी भी मेरे साथ चले आये । जब मेरा चित्त शान्त हुआ तो उन्होंने कहा-तुम इतनी जल्दी घबरा गये, अभी तो इस रहस्यका एक भाग मी नहीं देखा। यह तुम्हारी स्वामिनीके विशरका स्थान है और यही उनके पालतू जीव हैं। इन जीवोंके पिशाचाभिनय देखनेमें उनका विशेष मनोरञ्जन होता है। यह सभी मनुष्य किसी समय तुम्हारे ही समान प्रेम और प्रमोदके पात्र थे, पर आज उनकी यह दुर्गति हो रही है। अब तुम्हें मै यही सलाह देता हूँ कि इसी दम यहाँसे भागो नहीं तो रमणीके दूसरे वारसे कदापि न बचोगे। यह कहकर वह महात्मा अदृश्य हो गये। मैने भी अपनी गठरी बॉधी और अर्ध रात्रिके सन्नाटेमे चोरोकी भाति कमरेसे बाहर निकला | शीतल आनन्दमय समीर चल रही थी, सामनेके सागरमें तारे छिटक रहे थे, मेंहदीकी सुगन्धि उड़ रही थी। मैं चलनेको तो चला पर संसार सुख भोगका ऐसा सुअवसर छोड़ते