पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०२

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प्रेम पूर्णिमा २०३ हुए दुख होता था। इतना देखने और महात्माके उपदेश सुननेपर भी चित्त उस रमणीकी ओर खिचता था। मैं कई बार चला, कई बार लौटा, पर अन्तमें आत्माने इन्द्रियोंपर विजय पायी। मैने सीधा मार्ग छोड़ दिया और झीलके किनारे-किनारे गिरता पड़ता कीचड़में फँसता हुआ सड़कतक आ पहुँचा। यहाँ आकर मुझे एक विचित्र उल्लास हुआ मानों कोई चिड़िया बाजके चगुलसे छूट गयी हो। यद्यपि मै एक मासके बाद लौटा था पर अब जो देखा तो अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था । कमरेमे जरा भी गर्द या धूल न थी। मैने लोगोंसे इस घटनाकी चर्चा की तो लोग खूब हँसे और मित्रगण तो अभीतक मुझे 'प्राइवेट सेक्रेटरी' कहकर बनाया करते हैं। सभी कहते हैं कि मै एक मिनटके लिए भी कमरेसे बाहर न निकला, महीने भर गायब रहनेकी तो बात ही क्या । इसलिए अब मुझे भी विवश होकर यही कहना पड़ता है कि शायद मैने कोई स्वप्न देखा है। कुछ भी हो, परमात्माको कोटि धन्यवाद देता हूँ कि मै उस पापा डसे बचकर निकल आया । वह चाहे स्वप्न ही हो पर मै उसे अपने जीवनका एक वास्तविक अनुभव समझता हूँ क्योंकि उसने रुदैवके लिए मेरी ऑखे खोल दी।