पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०९

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२०९ महातीर्थ रहा है। उसे अब दूधसे प्रेम नहीं था न मिश्रीसे, न मेवेसे, न भीठे विस्कुटसे, न तानी इमरतीमे। उनमें मजा तब था जब अन्ना अपने हाथोंसे खिलाती थी। अब उनमें मजा नही था। दो शालका लहलहाता हुआ सुन्दर पौधा मुझा गया । वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गरमी और भारीपनका अनुभव होता था, अब सूखकर कॉटा हो गया था। सुखदा अपने बच्चे- की यह दशा देखकर भीतर-ही भीतर कुढ़ती और अपनी मूर्खता- पर पछताती । इन्द्रमणि जो शान्तिप्रिय आदमी थे अब बालकको गोदसे अलग न करते थे, उसे रोज साथ हवा खिलाने ले जाते थे, नित्य नये खिलौने लाते थे, पर वह मुझया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनपता था । दाई उसके लिये संसारका सूर्य थी। उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाशसे बञ्चित रहकर हरियालीकी बहार कैसे दिखाता ? दाईके बिना उसे अब चारो ओर अन्धेरा और सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गयी थी। पर रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुंह छिपा लेता था मानो वह कोई डाइन या चुढेल है। प्रत्यक्ष रूपमें दाईको न देखकर रुद्र अब उसकी कल्पनामें मम रहता । वहाँ उसकी अन्ना चलती-फिरती दिखाई देती थी। उसके वही गोद थी, वही स्नेह, वही प्यारी-प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मजेदार मिठाइयों, वही सुहावना संसार, वही आनन्दमय जीवन । अकेले बैठकर कल्पित अन्नासे बातें करता, अन्ना, कुत्ता भूके। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना, उजला- उजला घोड़ा दौड़े। सवेरा होते ही लोटा लेकर दाईकी कोठरीमें जाता और कहता-मना, पानी । दूधका गिलास लेकर उसकी