पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१०

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4म पूर्णिमा २१० कोठरीमें रख आता और कहता-- अन्ना दूध पिला । अपनी चारपाई पर तकिया रखकर चादरसे ढॉक देता और कहता- अन्ना, सोती है । सुखदा जब खाने बैठती तो कटोरे उठा उठाकर अनाकी कोठरीमे ले आता और कहता-अबा खाना खायगी। अन्ना अब उसके लिये एक स्वर्गकी वस्तु थी जिसके लौटनेकी अब उसे बिलकुल आशा न थी। रुद्रके स्वभावमे धीरे-धीरे बालकोंकी चपलता और सजीवताकी जगह एक निराशाजनक धैर्य, एक आनन्द-विहीन शिथिलता दिखाई देने लगी। इस तरह वीन हफ्ते गुजर गये । बरसातका मौसिम या । कभी बेचैन करनेवाली गर्मी, कभी हवाके ठंडे झोके । बुखार और जोकामका जोर या । रुद्रकी दुर्बलता इस ऋतु परिवर्तनको बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैनका कुर्ता पहनाये रखती थी। उसे पानीके पास नही जाने देती। नगे पैर एक कदम भी नहीं चलने देती। पर सर्दी लग ही गयी। रुद्रको खॉसी और बुखार आने लगा। प्रभातका समय था। रुद्र चारपाईपर ऑख बन्द किये पड़ा था । डाक्टरोंका इलाज निष्फल हुआ । 'सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छातीमें तेलकी मालिश कर रही थी और इन्द्रमणि विषादकी मूर्ति बने हुए करणापूर्ण ऑखोंसे बच्चेको देख रहे थे। इधर सुखदासे बहुत कम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरहकी घृणा-सी हो गयी थी। वह रुद्रकी बीमारीका एकमात्र' कारण उसीको समझते थे। वह उनकी दृष्टिमें बहुत नीच स्वभावकी