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प्रेम-पूर्णिमा
१८
 

यह बेचारा जो इतना ईमानदारीसे मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? हक कहकर न दो, इनाम कह- कर दो, किसी तरह तो दो। मगर वे वो समझती थीं कि मैंने इसे बीस रुपये महीनेपर मोल ले लिया है। मैंने आठ सालतक सब्र किया, अब क्या इसी बीस रुपयेमें गुलामी करता रहूँ और अपने बच्चोंको दूसरोंका मुँह ताकनेके लिये छोड़ जाऊॅ? अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोड़ूँ? जमींदारीकी लालसा लिए हुए क्यों मरूँ? जबतक जीऊँगा खुद खाऊँगा, मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ायेंगे।

माताकी आँखोमे आँसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम्हारे मुँहसे ऐसी बातें कमी न सुनी थी। तुम्हारे क्या हो गया है? तुम्हारे आगे बाल बच्चे हैं। आगमें हाथ न डाली?

बहूने सासकी ओर देखकर कहा—हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी हीमें मगन हैं।

मुन्शीजी—अच्छी बात है, तुम लोग रोटी दाल खाना, गजी गाढ़ा पहनना, मुझे अब हलुवे पूरीको इच्छा है।

माता—ग्रह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गङ्गामें डूब मरूँगी।

पत्नी—तुम्हें ये सब काटे बोना है तो मुझे मायके पहुँचा दो। मैं अपने बच्चोंको लेकर इस घरमें न रहूँगी।

मुन्शीजीने झुँझलाकर कहा—तुम लोगोंकी बुद्धि तो माँग खा गयी है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरोंका गला दबा दबाकर रिशवतें लेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाल-बच्चों ही को कुछ होता है न उन्हींको हैजा पाहता है। अधर्म उनको