पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम पूर्णिमा २१२ सुखदा-तुम क्यो जाओगे, मै आप चली जाऊँगी। इन्द्रमणि-नही, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है । न जाने तुम्हारी जबानसे क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी हो तो न आये। सुखदाने पतिकी ओर फिर तिरस्कारकी दृष्टि से देखा और बोली-हों और क्या मुझे अपने बच्चेकी बीमारीका शोक थोड़े ही है। मैने लाजके मारे तुमसे कहा नही, पर मेरे हृदयमे यह बात बार बार उठी है। यदि मुझे दाईके मकानका पता मालूम होता तो मैं कब ही उसे मना लायौ होती। वह मुझसे कितनी ही नाराज हो पर रुद्रसे उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करनेको कहते हो मैं उसके पैरों पड़नेके लिये तैयार हूँ। उसके पैरोको आँसुओंसे भिगोऊँगी और जिस तरह राजी होगी राजी करूँगी। सुखदाने बहुत धैर्य धरकर यह बातें कहीं परन्तु उमड़े हुए ऑसू अब न रुक सके। इन्द्रमणिने स्त्रीकी ओर सहानुभूतिपूर्वक देखा और लजित हो बोले-मैं तुम्हारा जाना उचित नही समझता । मैं खुद ही जाता हूँ। [५] कैलासी संसारमे अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाबकी तरह फूला हुआ था । परन्तु धीरे-धीरे उसकी सब पत्तियों गिर गयीं। अब उसकी सब हरियाली नष्ट भ्रष्ट हो गयी और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरे भरे पेड़का चिह्न रह गयी थी।