पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१३

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महातीर्थ परन्तु रुद्रको पाकर इस सूखी हुई टहनीमें जान पड़ गयी थी। इसमें हरी भरी पत्तियाँ निकल आयी थीं। वह जीवन जो अबतक नीरस और शुष्क था अब सरस और सजीव हो गया था। अन्धेरे जङ्गलमें भटके हुए पथिकको प्रकाशको झलक आने लगी थी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था। कैलासी रुद्रकी भोली भाली बातोंपर निछावर हो गयी । पर वह अपना स्नेह सुखदासे छिपाती थी। इसलिये कि मोके हृदय- में ष न हो। वह रुद्र के लिये मासे छिपकर मिठाइयों लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिनमें दो तीन बार उसे उक्टन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरोंके सामने उसे कोई चीज नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जायगी। सदा वह दूसरोंसे बच्चेके अल्पाहारका रोना रोया करती। उसे बुरी नजरसे बचानेके लिये ताबीज और गण्डे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमे स्वार्थकी गन्ध भी न थी। इस घरसे निकलकर आज कैलासीकी वह दशा थी जो थियेटरमें यकायक बिजली लैम्पोके बुझ जानेसे दर्शकोंकी होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानोंमें वही प्यारी प्यारी बातें गूंज रही थी। उसे अपना घर काटे खाता था । उस काल कोठरीमें दम घुटा जाता था। रात ज्यों त्यों कर कटी। सुबहको वह घरमें झाडू लगा रही थी। यकायक बाहर ताजे हलुवेकी आवाज सुनकर बड़ी फुर्तासे धरसे बाहर निकल आयी। तबतक याद आ गया आज हलवा कौन खायगा? आज गोद में बैठकर कौन चहकेगा ? बह