पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१४

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प्रेम पूर्णिमा माधुरी गान सुननेके लिये जो इल्लुवा खाते समय रुद्रकी ऑखोंसे, होठोंसे और शरीरके एक एक अगसे बरसता था कैलासीका हृदय ताप गया। वह व्याकुल होकर घरसे बाहर निकली कि चलू रुद्रको देख आऊँ । पर आधे रास्तेसे लौट गयी। रुद्र कैलासीके ध्यानसे एक क्षण भरके लिये भी नहीं उतरता था। वह सोते सोते चौक पड़ती, जान पड़ता रुद्र डडेका घोड़ा दबाये चला आता है। पडोसिनोंके पास जाती तो रुद्र हीका चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जानमे बसा हुआ था। सुखदाके कठोरतापूर्ण कुव्यवहारका उसके हृदयमें ध्यान नहीं था। वह रोज इगदा करती थी कि आज रुद्रको देखने चलूंगी। उसके लिये बाजारसे मिठाइयों और खिलौने लाती ! घरसे चलती पर रास्तेसे लौट आती। कभी दो चार कदमसे आगे नहीं बढा जाता । कौन मुँह लेकर जाऊ ! जो प्रेमको धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुंह दिखाऊँ, कमी खोचती यदि रुद्र मुझे न पहचाने लो' बच्चोके प्रेमका ठिकाना ही क्या ? नयी दाईसे हिल मिल गया होगा। यह खयाल उसके पैरोंपर जंजीर का काम कर जाता था। इस तरह दो इसे बीत गये। कैलासीका जी उचटा रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी । वरकी चीजे जहाँकी तहों पड़ी रहती, न खानेकी सुधि थी न कपड़े की। सतदिन रुद्रहीके ध्यान में डूबी रहती थी । स्योगसे इन्हीं दिनों बद्रीनाथकी यात्राका समय आ गया। महल्लेके कुछ लोग यात्राकी तैयारियाँ करने लगे। कैलासीकी दशा इस समय उस पालतू चिड़ियाकी- सी थी जो पिंजड़ेसे निकलकर फिर किसी कोचेको खोजमें हो।