पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१५

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महातीर्थ २१५ उसे विस्मृतिका यह अच्छा अवसर मिल गया। यात्राके लिये तैयार हो गयी। आसमानपर काली घटाएँ छाई हुई थी और हल्की-हल्की फूहारे पड़ रही थी। देहली स्टेशनपर यात्रियोंकी भीड़ थी। कुछ गाडियोंपर बैठे थे, कुछ अपने घरवालोंसे बिदा हो रहे थे। चारो तरफ एक हलचल-सी मची थी। संसार-माया आज भी उन्हे जकड़े हुए यो। कोई स्त्रीको सावधान कर रहा था कि धान कट जावे तो तालाबबाले खेत में मटर बो देना और बागके पास गेहूँ। कोई अपने जवान लड़केको समझा रहा था असा- मियोपर बकाया लगानकी नालिश करने में देर न करना और दो रुपये सैकड़ा सूद जरूर काट लेना । एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीबसे कह रहे थे कि माल आने में देर हो तो खुद चले जाइयेगा और चलतू माल लीजियेगा, नही तो रुपया फॅस जायगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु मनुष्य भी थे जो धर्म मम दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप आसमानकी ओर निहार रहे थे या माला फेरनेमें तल्लीन थे। कैलासी भी एक गाडीमें बैठी थोच रही थी, इन भले आदमियोंको अब भी समारकी चिन्ता नहीं छोड़ती। वही बनिज व्यापार लेन-देनकी चर्चा । रुद्रग इस समय यहाँ होता तो बहुत रोता, मेरी गोदसे कभी न उतरता । लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊँगी। या ईश्वर किसी तरह माड़ी चले, गर्मी के मारे, जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई है, किन्तु बरसनेका नाम नहीं लेती। मालूम नहीं यह