पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२१८

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प्रेम पूर्णिमा २१८ और पकावानसे कहती थी, बेटा। जल्दी कर। मैं तुझे कुछ ज्यादे दे दूंगी। रास्तेमें मुसाफिरोंकी भीड देखकर उसे क्रोध आता था। उसका जी चाहता था कि थोड़ के पर लग जाते लेकिन इन्द्रमणिका मकान करीब आ गया तो कैलासीका हृदय उछलने लगा। बार-बार हृदयसे रुद्र के लिये शुभ आशीर्वाद निकलने लगा। ईश्वर करे सब कुशल मङ्गल हो। एका इन्द्र- मणिकी गलीकी ओर मुड़ा । अकस्मात् कैलासीके कानमें रोनेकी ध्वनि पड़ी। कलेजा मुंहको आ गया। सिरमे चक्कर आ गया। मालूम हुआ नदीमें डूबी जाती हूँ। जी चाहा कि एक्केपरसे कूद पड़ । पर थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि कोई स्त्री मैकेसे विदा हो रही है । सन्तोष हुआ । अन्तमें इन्द्रमणिका मकान आ पहुँचा । कैलासीने डरते डरते दरवाजेकी तरफ साका। जैसे कोई घरसे भागा हुआ अनाथ लड़का शामको भूखा प्यासा घर आए और दरम्राजेको ओर सटकी हुई आँखोंसे देखे कि कोई बैठा तो नही है। दरवाजेपर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैध : सुरती मल रहा था। कैलासीको जरा ढाढस हुआ। घरमें पैठी तो नई दाई पुलटिस पका रही है । हृदयमें बलका सञ्चार हुआ। सुखदाके कमरेमें गयी वो उसका हृदय गर्मीके मध्याहकालके सहश कॉप रहा था । सुखदा रुद्रको गोद में लिये दरवाजेकी ओर एक टक ताक रही थी। शोक और करुणाकी मूर्ति बनी थी। कैलासीने सुखदासे कुछ नही पूछ । रुद्रको उसकी गोदसे ले लिया और उसकी तरफ सजल नयनोसे देखकर कहा-बेटा, रुद्र, ऑखे खोलो। रुद्रने ऑखें खोली, क्षणभर, दाईको चुपचाप देखता रहा