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प्रेम-पूर्णिमा
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कर बैठे। वह बाजारमें निकलते तो दूकानदारोंमें कुछ कानाफूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टिसे देखने लगते। अबतक लोग उन्हें विवेकशील और सञ्चरित्र मनुष्य समझते थे, शहरके धनीमानी उन्हें इज्जतकी निगाहसे देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुन्शीजीको अबतक किसीसे टेढ़ी तिरछी सुननेका संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसीसे छिपी नहीं है। चाहे अदालतसे उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेगे! दूसरोंकी तो बात अलग रही, स्वय उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे। बूढ़ी माताने तीन दिनसे मुॅहमें पानी नहीं डाला था। स्त्री बार-बार हाथ जोड़कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकोंपर दया करो। बुरे कामका फल कभी अच्छा नहीं होता। नहीं तो पहले मुझीको विष खिला दो।

जिस दिन फैसला सुनाया जानेवाला थो, प्रातःकाल एक कुँजडिन तरकारियॉ लेकर आयी और मुन्शिआइनसे बोली— बहूजी, हमने बाजार में एक बात सुनी है। बुरा न मानो तो कहूँ। जिसको देखो उसके मुँहमें यही बात है कि लाला बाबूने जालसाजीसे पण्डिताइनका कोई इलाका ले लिया। हमें तो इसपर यकीन नहीं आता। लाला बाबूने न सँभाला होता तो अबतक पण्डिवाइनका कही पता न लगता। एक अगुल जमीन न बचती। इन्हीं ऐसा सरदार था कि सबको संभाल लिया। तो क्या अब उन्हींके साथ बदी करेंगे! अरे बहू, कोई कुछ साथ लाया है कि ले जायगा। यहो नेक-बदी रह जाती है। पुरे