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ईश्वरीय न्याय
 


मुन्शीजी देरतक इसी विषयमें पड़े रहे, पर कुछ निश्चय न कर सकें कि क्या करें।

भानुकुँवरिको भी विश्वास हो गया कि अब गाॅव हाथसे गया। बेचारी हाथ मलकर रह गयी। रातभर उसे नींद न आयी। रह-रहकर मुन्शी सत्यनारायणपर क्रोध आता था। हाय! पापी, ढोल बजाकर मेरा तीस हजारका माल लिये जाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आज कल के न्याय करनेवाले बिल्कुल आँखके आधे हैं। जिस बातको सारी दुनिया जानती है उसमें भी उनकी दृष्टि नहीं पहुॅचती। बस, दूसरोंकी ऑखोंसे देखते हैं। कोरे कागजोंके गुलाम हैं। न्याय वह है कि दूधका दूध, पानीका पानी कर दे। यह नहीं कि खुद ही कागजोंके धोखेमें आ जाय, खुद ही पाखण्डियोंके जालमें फँस जाय। इसीसे तो ऐसे छली, कपटी, दगाबाज दुरात्माओंका साहस बढ़ गया है। खैर गॉव जाता है तो जाय लेकिन सत्यनारायणा, तुम तो शहरमें कही मुँह दिखाने के लायक नहीं रहे।

इस खयालसे भानुकुँवरिको कुछ शान्ति हुई। अपने शत्रुकी हानि मनुष्यको अपने लाभसे भी अधिक प्रिय होती है। मानवस्वभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गाँव ले गये, नारायण चाहेंगे, तो तुम भी इसमे सुख न पाओगे। तुम आप नरककी आगमें जलोगे, तुम्हारे घरमें कोई दिया जलानेवाला न रहेगा।

फैसलेका दिन आ गया। आज इजलासमें बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव भी उपस्थित थे, जो बगुलोंकी तरह अफसरों- की बधाई और विदाईके सरोवरोहीमें नजर आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारोको काली पल्टन भी जमा थी। नियत चाहेंगे, तो