पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/३३

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२९ ईश्वरीय न्याय की ऑखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ बात अब किसीसे छिपी न थी। इतने आदमियोंके सामने असत्य बात मुंहसे न निकल सकी। लज्जाने जबान बन्द कर ली, "मेरा" कहने में काम बनता था। कोई बाधा न थी। किन्तु घोरतम पापका जो दण्ड समाज दे सकता है उसके मिलनेका पूरा भय था। "आपका' कहनेसे काम बिगड़ता था। जीती जिताई बाजी हाथसे जाती थी। पर सर्वोत्कृष्ट कामके लिए समाजसे जो इनाम मिल सकता है उसके मिलनेकी पूरी आशा थी। आशाने भयको जीत लिया । उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ईश्वरने मुझे अपना मुख उज्ज्वल करनेका यह अन्तिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानवसम्मान- का पात्र बन सकता हूँ। अब भी अपनी आत्माकी रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़कर भानुकुवरिकोप्रणाम किया और कॉपते हुए स्वरमें बोले आपका हजारों भनुष्योंके मुंहस एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली- सत्यकी जय । जजन्ने खड़े होकर कहा-यह कानूनका न्याय नही, "ईश्वरीय न्याय" है। इसे कथा न समझिये, सच्ची घटना है। भानुकुवरि और सत्यनारायण अब भी जीवित हैं । मुंशीजी- के इस नैतिक साहसपर लोग मुग्ध हो गये। मानवी न्यायपर ईश्वरीय न्यायने जो विलक्षण विजय पायी उसकी चर्चा शहर 'भरमे महीनो रही, भानुकुवरि मुन्शीजीके घर गयी। उन्हें मनाकर लायी। फिर अपना कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनोंके उप-