पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/३७

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३३ शंखनाद उसीके सिर थापे जाते, उपले थापती, कुएँसे पानी लावी, आटा पीसती और इतनेपर भी जेठानियाँ सीधे मुंह बात न करतीं, वाक्य- वारपोसे छेदा करती। एक बार जब वह पतिसे कई दिन रूठी रही तो बाके गुमान कुछ नर्म हुए । बापसे जाकर बोले-'मुझे कोई दूकान खुलवा दीजिए।' चौधरीने परमात्माको धन्यवाद दिया। फूले न समाये। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी । गुमानके भाग जागे। तनजेबके चुननदार कुरते बनवाये, मलमलका साफा धानी रगमें रँगवाया। सौदा बिके या न बिके उसे लाभ ही होता था । दूकान खुली हुई है, दस-पॉच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, वरसके दम और खियालकी ताने उड़ रही हैं- चल झटपटरी, जमुना तट री खलो नटखट री इस तरह तीन महीने चैनसे कटे। बाके गुमानने खूब दिल खोलकर अरमान निकाले। यहाँ तक सारी लागत लाभ हो गयी। टाटके टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा । बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजोंने घोर आदोलन मचाया; अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चीथड़ोंको तरसे, गाढेका एक कुर्ता भी न नसीब हो और इतनी बड़ी दूकान इस निख का कफन बन गयी। अब कौन मुंह दिखावेगा? कौन मुंह लेकर घरमे पैर रखेगा? किन्तु बाके गुमानके तीवर जग भी मैले न हुए । वही मुंह लिए वह फिर घरमें आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदॉ वितान इसके यह ठाठ-बाट देखकर जल जाता । मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नयनसुखका कुर्ता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोडे और यों बन ठन कर निकले।