पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४१

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शंखनाद थे। उनके लिए मिट्टीके घोड़े और लकड़ीकी नावें, कागजकी नार्वे थी । फलोंके विषयमें उनका ज्ञान असीम था। गूलर और जंगली बेरके सिवा कोई ऐसा फल न था जिसे वह बीमारियोंका घर न समझते हो। लेकिन गुरदीनके खोंचेमें ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था | साधारण बच्चोंकी तरह यदि वह सोते भी हों तो चौंक पड़वे थे । गुरदीन उस गॉवमे साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमनकी प्रतीक्षा और आकाक्षामें कितने ही बालकोंको बिना किंडरगार्टनकी रगीन गोलियोंके ही सख्यायें और दिनोंके नाम याद हो गये थे। गुरदीन बूढ़ासा मैलाकुचैला आदमी था, किन्तु आसपासमें उसका नाम उपद्रवी लड़कोके लिये हनुमानमत्रसे कम न था । उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचेपर बालकोंका ऐसा धावा होता कि मक्खियोंकीअसख्य सेनाको भीरणस्थलसे भागना पड़ता था, और जहाँ बच्चोंके लिए मिठाइयाँ थीं, वहाँ गुरदीनके पास माताओके लिए इससे भी ज्यादा मीठी बाते थी। मॉ कितना ही मना करती रहे, बार बार पैसे न रहनेका बहाना करे, पर गुरदीन चटपट मिठाइयोका दोना बच्चे के हाथमें रख ही देता और स्नेहपूर्ण भावसे कहता-बहूजी। पैसोंकी कुछ चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेंगे, कही भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण तुमको बच्चे दिये हैं तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जातो हैं, उन्हींकी बदौलत मेरे बालबच्चे भी जीते हैं, अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना कैसो ठनगन करता हूँ। सुरदीनरामका यह व्यवहार चाहे वाजिज्य नियमोंके प्रति- कूल ही क्यों न हो, चाहे 'नौ नक्द न तेरह उधार' वाली कछ-