पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४२

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प्रेम पूर्णिमा वत अनुभव सिद्ध ही क्यो न हो किन्तु मिष्टभाषी सुरदीनको कभी अपने इस व्यवहारसे पछताने या उसमें संशोधन करनेकी जरूरत नही हुई। मङ्गलका शुभ दिन था. बच्चे बडी बेचैनीसे अपने दरवाजों पर खड़े गुरदीनको राह देख रहे थे। कई उत्साही लड़के पेड्रोपर चढ़ गये थे और कोई-कोई अनुरागसे विवश होकर गाँवसे बाहर निकल गये थे । सूर्य भगवान अपना सुनहरा थाल लिये पूरबसे पच्छिममें जा पहुंचे थे कि गुरदीन आता हुआ दिखायी दिया। लड़कोंने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपसमें खीचातानी होने लगी। कोई कहता था, मेरे घर चलो, कोई अपने घरका न्योता देता था । सबमें पहले भान चौधरीका मकान पड़ा, गुर- दीनने अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयोंकी लूट शुरू हो गयी । बालकों और स्त्रियोंका व लग गया। हर्ष विषाद, सन्तोष और लोभ, ईर्षा और जलनकी नाट्यशाला सम गयी। कानूनी वितानकी पनी भी अपने तीनों लड़कोंको लिए हुए निकली। शानको फुली मो अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीनने मीठी बातें करनी शुरू की। पैसे चोलीमे रखे, धेले. 'धेलेकी मिठाई दी, धेले-धेलेका आशीर्वाद । लपके दोने लिये उछलते-कूदते घरमे दाखिल हुए। अगर सारे गाँवमे कोई ऐसा बालक था; जिसने गुरदीनकी उदारतासे लाभ न उठाया हो तो वह बाके गुमानका लड़का धान था। यह कठिन था कि बालक धान अपने भाइयों, बहिनोंको हँस- स और उछल-उछल कर मिठाइयों खाते देखे और सब कर जाय। उसपर तुर्रा यह कि वह उसे मिइयों दिखा-दिखाकर