पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४३

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शंखनाद ललचाते और चिड़ाते थे। बेचारा धान चीखता था और अपनी माताका ऑचल पकड़-पकड़कर दरवाजेकी तरफ खींचता था। पर वह अबला क्या करे। उसका हृदय बच्चेके लिये ऐंठ एंड कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं था। अपने दुर्भाग्यपर, जेवनियोकी निठुरतापर और सबसे ज्यादा अपने प्रतिके विखद पनपर कुढ़-कुलकर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता तो क्यों दूसरोंका मुंह देखना पड़ता, क्यों दूसरोंके धर्क खाने पड़ते। उसने धनिको गोदमें उठा लिया और प्यारसे दिलासा देने लगी-बेटा! रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा तो मैं तुम्हें बहुतसी मिठाई ले दूंगी, मैं इससे अच्छी मिठाई बाजारसे मँगका दूँगी, तुम कितनी मिलई खाओगे।' यह कहते- कहते उसकी आँखें भर आयी; आह। यह मनहूस मङ्गल आज ही फिर आवेगा और फिर यही बझने करने पड़े गे! हाय ! अपना प्यारा बच्चा धेलेकी मिठाईको तरसे और घरमें किसीका पत्थरसा कलेजान पसीजे । वह बेचारी तो इन चिन्ताओं में डूबी हुई थी और धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश्च न चला तो माँकी गोदसे उतरकर जमीनपर लोटने लगा और रो-रोकर दुनिया सिरपर उठा ली। माँने बहुत बहलाया, फुसलाया, यहाँ तक कि उसे बच्चेके इस इठपर क्रोध आ गया। मानव हृदयके रहस्य कभी समझने में नहीं आते। कहाँ तो बच्चे को प्यारसे चिपटाती थी. कहाँ ऐसी मलाई कि उसे दो तीन थप्पड़ जोरसे लगाये और धुड़ककर बोली-चुप रह अमागे ! तेरा ही मुंह मिठाई खानेका है, अपने दिनको नहीं रोता । मिठाई खाने चला है।