पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४४

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प्रेम-पूर्णिमा बाका गुमान अपनी कोठरीके द्वारपर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यानसे देख रहा था। वह इस बच्चेको बहुत चाहता था। इस वक्तके थप्पड़ सके हृदयमें तेज भालेके समान लगे और चुभ गये । शायद उसका अभिप्राय भी यही/या । धुनियाँ रूईको धुनने के लिये तातपर चोट लगाता है। जिस तरह पत्थर और पानीमें आग छिपी रती है, उसी तरह मनुष्यके हृदय में भी,-चाहे वह कैसा ही कर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमानकी ऑखें भर आयी, ऑकी बूंदे बहुधा हमारे हृदयकी मलीनताको उज्ज्वल कर देती हैं। गुमान सचेत हो गया। उसने जाकर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नीसे करुणोत्पादक स्वरमें बोला-बच्चेपर इतना क्रोध क्यों करती हो। तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दण्ड चाहे दो, परमात्माने चाहा तो कलसे लोग इस घरमे मेरा और मेरे बाल-बच्चोंका भी आदर करेंगे। तुमने मुझे आज सदाके लिये इस तरह जगा दिया, मानो मेरे कानों में शंखनाद कर कर्मपथमे प्रवेश करनेका उपदेश दिया हो।