पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४५

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खून सफेद- [१] चैतका महीना था, लेकिन वे खलिहान, जहाँ अनाजकी ढेरियाँ लगी रहती थी, पशुओंके शरणस्थल घरोंसे फाग और बसन्तकी अलाप सुनाई पडती, बहों आज भाग्यका रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानीकी एक बून्द न गिरी। जेठमें एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाये, खरीफकीफसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेवने अपना सर्वस्व शायद एकही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गये। गोचरभूमिमें पास न जमी। बादल आते, घटायें उमड़ती, ऐसा मालूम होता जलपथ एक हो जायगा, परन्तु बे आशाकी नही, दुःखको घटायें थी । किसानोंने बहुतेरे जप-तप किये, ई ट और पत्थर देवी-देवताओंके नामसे पुजाये, बलिदान किये, पानीकी अभिलाषामें रक्कके पनाले बह गये, लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह न पसीजे । न खेतोंमें पौधे थे, न गोचरोंमें घास, न तालाबमें पानी. बड़ी मुसीबतका सामना था। जिधर देखिये, धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधापीडाकेदारुण दृश्य दिखायी देते थे। लोगोंने पहिले तो गहने और बरतन गिरवी रखे और अन्तमे बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और जब जीवि- काका अन्य कोई सहारा न रहा, तब जन्म भूमिपर जान देनेवाले किसान बालबच्चोंको लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल- पीड़ितोकी सहायताके लिये कहीं-कहीं सरकारकी सहायतासे काम