पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४८

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४४ प्रेम पूणिमा जब ये लोग लालगज पहुँचे उस समय सूर्य ठीक सिरपर था, देखा मीलों तक आदमी ही-आदमो दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरेपर दीनता और दुःखके चिढ झलक रहे थे। बैसाखकी जलती हुई धूप थी। आगके झोंके जोर-जोरसे हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियोंके अगणित ढॉचे जिनके शरीरपर किसी प्रकारका कपड़ा न था, मिट्टी खोदनेमें लगे हुए थे मानों वह मरघट भूमि थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कबरे खोद रहे थे । बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सबके-सब ऐसे निराश और विवश होकर काममें लगे हुए थे मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है। इस आफत में न कोई किसीका मित्र था न हितू । दया, सहृदयता और प्रेम ये सब माननीय भाव है, जिनका कर्ता मनुष्य है, प्रकृतिने हमको केवल एक मात्र प्रदान किया है और वह स्वार्थ है । “मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रोंकी भॉति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वर प्रदत्त गुणा कमी हमारा गला नहीं छोड़ता। [४] आठ दिन बीत गये थे । सन्ध्या समय काम समाप्त हो चुका था । डेरेसे कुछ दूर आमका एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहिचानी जाती थी। अब वह स्वाधीन कृषक नहीं रहे । समयके हेर फेरसे आज दोनों मजदूर बने बैठे हैं। जादोरायने बच्चेको जमीनपर सुला दिया। उसे कई दिनसे बुखार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया है। देवकीने