पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/४९

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खून सफेद धीरेसे हिलाकर कहा-बेटा । आँखे खोलो। देखो साझ हो गयी। साधोने ऑखे खोल दी, बुखार उतर गया था, बोला-क्या इम घर आ गये मो? घरकी याद आ गयी, देवकीकीऑखें डबडबा आई। उसने कहा-नहीं बेटा । तुम अच्छे हो जाओगे, तो घर चलेगे। उठ- कर देखो, कैसा अच्छा बाग है ? साधी माँ के हाथोंके सहारे उठा और बोला-मॉ! मुझे बड़ी भूख लगी है, लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खानेको दोगी? देवकीके हृदयमें चोट लगी, पर धीरज घरके बोली-नहीं बैठा, तुम्हारे खानेको मेरे पास सब कुछ है । तुम्हारे दादा पानी लाते हैं तो मैं नरम-नरम रोटियाँ अभी बनाये देती हूँ। साधोने मॉकी गोद में सिर रख लिया और बोला-'माँ! मैं न होता तो तुम्हें इतना दुःख तो न होता।' यह कहकर वह फूट- फूट कर रोने लगा। यह वही बेसमझ बच्चा है जो दो सप्ताह पहिले मिठाइयोंके लिए दुनिया सिरपर उठा लेता था। दुःख और चिन्ताने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्तिका फल है । कितना दुःखपूर्ण, कितना करुणाजनक व्यापार है ! इसी बीचमें कई आदमी लालटेन लिये हुए वहाँ आये । फिर गाडियाँ आयी। उनपर डेरे और खेमे लदे हुए थे। दम के- दममे वहॉ खेमें गड़ गये । सारे बागमें चहल पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्यसे देखता हुआ, एक डेरेके नजदीक जाकर खड़ा हो गया। -