पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/५३

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खून सफेद तो उनके दिलोमें आशा तथा भयकी लहरे उठने लगती थीं। लेकिन प्रत्येक पग उन्हे अभीष्ट स्थानसे दूर लिये जाता था। [६] इस घटनाको हुए चौदह वर्ष बीत गये। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गयी। चारों ओर रामराज्य दिखायी देने लगा। इन्द्रदेवने कभी उस तरह अपनी निर्दयता न दिखायी और न जमीनने ही । उमड़ी हुई नदियोकी तरह अनाजसे देकियों मर चली । उजड़े हुए गाँव बस गये। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद की तलाशमें नजरें दौड़ाने लगे। वही चैतके दिन थे। खरिहानों में अनाजके पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानोंकी बढ़ती के तराने गा रहे थे । सुनारोंके दरवाजे- पर सारे दिन और आधी राततक गाहकोंका जमघट बना रहता था। दरजीको सिर उठानेकी फुरसत न थी। इधर-उघर दरवाजोपर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवीके पुजारियोंको अजीणं हो रहा था। जादोरायके दिन भी फिरे। घर पर छप्परकी जगह खपरैल हो गया है । दरवाजेपर अच्छे बैलोंकी जोड़ी बँधी हुई है । वह अब अपनी बहलीपर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नही है। पेटपर इस मुदशाका विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल भी सफेद हो चले हैं । देवकीकी गिनती भी गाँवको बूढ़ी औरतोंमें होने लगी है। व्यावहारिक बातोंमें उसको बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिनके घर जाती है तो वहॉकी बहुएँ भयके मारे थरथराने लगती है।