पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा ५२ मैं किसी तरह राजी न हुआ तो उन्होंने मुझे पूना भेज दिया। मेरी तरह वहॉ सैकड़ों लड़के थे। वहाँ बिस्कृट और नारगियोका भला क्या जिक! जब मुझे आप लोगोंकी याद आती, मै अक्सर रोया करता! मगर बचपनकी उम्र थी, धीरे-धीरे उन्ही लोगोसे हिल-मिल गया। हॉ, जबसे कुछ होश हुआ और अपना-पराया समझने लगा हूँ तबसे अपनी नादानीपर हाथ मलता रहा हूँ। रात-दिन आप लोगोंकी रट लगी हुई थी। आज आप लोगों के आशीर्वादसे यह शुभ दिन देखनेको मिला । दूसरोंमें बहुत दिन कटे, बहुत दिनोंतक अनाथ रहा। अब मुझे अपनी सेवामें रखिए। मुझे अपनी गोदमें लीजिए। मैं प्रेमका भूखा हूँ। बरसोंसे मुझे जो सौभाग्य नहीं मिला, वह अब दीजिये। गाँबके बहुतसे बुद्ध जमा थे। उनमेंसे जगत सिंह बोले-~-तो क्यों बेटा । तुम इतने दिनोंतक पादरियोंके साथ रहे ! उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा? साधोने सिर झुकाकर कहा-जी हाँ यह तो उनका दस्तूर ही है। जगतसिंहने जादोरायकी तरफ देखकर कहा-यह बड़ी कठिन बात है। साधो बोला--विरादरी मुझे जो प्रायश्चिच बतलावेगी, मै उसे करूँगा। मुझसे जो कुछ विरादरीका अपराध हुआ है, नादानीसे हुआ है। लेकिन मैं उसका दण्ड भोगनेके लिए तैयार हूँ। जगतसिहने फिर जादोरायकी तरफ कनखियोंसे देखा और