पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६

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प्रेम पूर्णिमा २ सिवा पण्डितजीके घरमे और कोई न था। अन्त्येष्टि क्रियासे निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पण्डिताइनने उन्हें बुलाया और रोकर कहा-लाला | पण्डितजी तो हमें मॅझधारमें छोड़कर सुरपुरको सिधार गये, अब यह नैया तुम्ही पार लगाओ तो लग सकती है । यह सब खेती तुम्हारी ही लगायी हुई है। इससे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं , इन्हे अपनाओ। जबतक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह इस मारको सँभाले रहोगे। सत्यनारायणने रोते हुए जवाब दिया-भाभी ! भैया क्या। उठ गये, मेरे भाग्य फूट गये। नही तो मुझे आदमी बना देते। मै उन्हीका नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीकी चाकरीमें मरूँगा, आप धीरज रखें। किसी प्रकारकी चिन्ता न करें। मैं जीतेजी आपकी सेवासे मुंह न मोडूंगा । आप केवल इतना कीजियेगा कि में जिस किसीकी शिकायत करूँ उसे डॉट दीजियेगा, नहीं तो ये लोग सिर चढ जायेंगे। इस घटनाके बाद कई वर्षोंतक मुन्शीजीने रियासतको सँभाला। वह अपने काममें बड़े कुशल थे। कभी एक कौड़ीका बल नहीं पड़ा। सारे जिलेमें उनका सम्मान होने लगा। लोग परिडत- नीको भूल-सा गये। दरबारों और कमेटियोंमें वे सम्मिलित होते, जिलेके अधिकारी उन्हींको जमींदार समझते। अन्य रईयों में भी उनका बड़ा आदर था, पर मानवृद्धि महँगी वस्तु है और भानु- कुँवरि, अन्य स्त्रियोंके सदृश, पैसेको खूब पकड़ती थी। का