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ईश्वरीय न्याय
 

मनुष्यकी मनोवृत्तियोंसे परिचित न थी। पण्डितजी हमेशा लालाजीको इनाम इकरार देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञानके बाद ईमानका दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवाय वे खुद कभी कभी कागजोंकी जॉच कर लिया करते थे । नाममात्र हीको सही, पर इस निगरानीका डेर जरूर बना रहता था। क्योंकि ईमानका सबसे बडा शत्रु अवसर है। भानुकुॅ वरि इन बातोको जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव जैसे प्रबल शत्रुओके पजेमे पडकर मुन्शीजीका ईमान कैसे बेदाग बचता।

कानपुर शहरसे मिला हुआ, ठीक गगाके किनारे एक बहुत आबाद और उपजाऊ गॉव था। पण्डितजी इस गॉवको लेकर नदीके किनारे पक्का घाट, मन्दिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे। पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोगसे अब वह गाॅव बिकने लगा। उसके जमीदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारीके मामलेमे फॅसे हुए थे। मुकदमा लड़नेके लिये रुपयेकी चाह थी। मुन्शीजीने कचहरीमें यह समाचार सुना। चटपट मोलतोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी। बैनामा लिखा गया। रजिस्टरी हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजनके यहॉसे ३० हजार रुपये मॅगवाये और ठाकुर साहबकी नजर किये गये। हॉ, कामकाज की आसानीके ख्यालसे यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजीने अपने ही नाम की, क्योंकि मालिकके लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नामसे लेनेसे बहुत, झंझट होती और विलम्ब होनेसे शिकार हाथसे निकल जाता। मुन्शीजी बैनामा लिये असीम आनन्द में