पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६१

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गरीबकी हाय जीवनका आधार थीं। वह नित्य मुन्सफो कचहरीके हातेमें एक भीम के पेड के नीचे कागजोंका बस्ता खोले एक टूटीसी चौकीपर बैठे दिखायी देते थे। किसीने कभी उन्हें किसी इजलासपर कानूनी बहस या मुकद्दमेकी पैरवी करते नही देखा। परन्तु उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कहकर पुकारते थे। चाहे तूफान आवे, पानी बरसे, ओले गिरे, पर मुख्तार साहब वहॉ से टससे मस न होते । जब वह कचहरी चलते तो देहातियो के झुड के झुड उनके साथ हो लेते। चारों ओरसे उनपर विश्वास और आदरकी दृष्टि पडती। सबमें प्रसिद्ध था कि उनकी जीभपर सरस्वती" विरा- जती है। इसे वकालत कहो या मुख्तारी, परन्तु यह केवल कुल मर्यादाकी प्रतिष्ठाका पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदीके सिक्कोंकी तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी तोबके सिक्के भी निर्भय उनके पास आनेसे हिचकते थे। मुन्शीजीकी कानूनदानीमें कोई सन्देह न था। परन्तु “पास" के बखेडेने उन्हें विवश कर दिया था। खैर जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालनके निमित्त था। नहीं तो उनके निर्वाहका मुख्य साधन आसपासकी अनाथ, पर खाने-पीने में सुखो विधवाओं और भोले भाले, किन्तु धनी, वृद्धोंकी श्रद्धा थी। विधवाये अपना रुपया उनके यहाँ अमानत रखती। बूढे अपने कपूतोंके डरसे अपना धन उन्हें सौप देते। पर रुपया एक बार उनकी मुट्ठीमे जाकर फिर कलना भूल जाता था। वह जरूरत पडनेपर कभी कभी कुर्ज ले लेते थे। भला बिना कर्ज लिये किसीका काम चल सकता है । भोरको सॉसके करारपर रुपया लेते, पर यह सॉझ कभी नही आती थी। साराश, मुन्शीजीकर्ज लेकर देना सीखे नहीं थे।