पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६४

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प्रेम-पूर्णिमा पञ्चोंने एक स्वरसे कहा-नहीं, नहीं । आपसे ऐसा नहीं हो सकता। रामसेवक-यदि आप सब जजनोंका विचार हो कि मैने रुपये दबा लिये, तो मेरे लिये डूब मरनेके सिवा और कोई उपाय नही । मै धनाढ्य नही हूँ, न मुझे उदार होनेका घमण्ड है, पर अपनी कलमकी कृपासे, आप लोगोंकी कृपासे किसीका मुहताज नही हूँ। क्या में ऐसा ओछा हो जाऊँगा कि एक अनाथिनीके रुपये पचा लूँ! पञ्चोंने एक स्वरसे फिर कहा-नहीं नही। आपसे ऐसा नहीं हो सकता। मुँह देखकर टीका काढ़ा जाता है। पञ्चोंने मुन्शीजीको छोड दिया। पचायत उठ गयी । मूगाने आइ भरकर सन्तोष किया और मनमें कहा- अच्छा, अच्छा । यहाँ न मिला तो न सही, वहाँ कहॉ जायगा। अब कोई मूगाका दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रतासे जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीरसे पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी, पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिनसे उसने काम करनेकी कसम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपयोंकी रट लगी रहती उठते-बैठते, सोते-जागते, उसे केवल एक काम था और वह मुशी रामसेवकका -भला मनाना । अपने झोपड़े के दरवाजेपर बैठी हुई रात-दिन, उन्हे सच्चे मनसे असीसा करती. बहुधा अपनी असीसके वाक्योंमें ऐसे कविताके वाक्य और उपमाओंके व्यव-