पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६५

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गरीबकी हाय हार करती कि लोग सुनकर अचम्भेमें आ जाते। धीरे-धीरे मूंगा पगली हो चली। मगे सिर, नगे शरीर हाथमें एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानोंमे जा बैठती, झोपड़े के बदले अब वह मरघट- पर, नदीके किनारे खण्डहरोंमें धूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लट, लाल लाल ऑखे, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पॉव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसीमें भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गॉवमें निकल आती तो स्त्रियों घरोंके किवाड़ बन्द कर लेती । पुरुष कतराकर इधर-उधर- से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते, यदि कोई लड़का भागता न था तो वह मुन्शी रामसेवकका सुपुत्र राम- गुलाम था। बापमें जो कुछ कोर-कसर रह गयी थी वह बेटेमें पूरी हो गयी थी। लड़कोंको उसके मारे नाक्रमे दम था। गॉवके काने और लग आदमी उसकी सूरतसे चिढते थे और गालियों खानेमें तो शायद ससुरालमें आनेवाले दामादको भी इतना आनन्द न आता हो । वह मुंगाके पीछे तालियाँ बजाता, कुचों- को साथ लिये हुए उस समयतक रहता, जबतक वह बेचारी वङ्ग आकर गॉवसे निकल न जाती। रुपया-पैसा, होश-हवास खोकर उसे पगलीकी पदवी मिली और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने आप घण्टों बाते किया करती। जिसमें रामसेवकके मास, हड्डी, चमड़े, ऑस्ने, कलेजा आदिको खाने, मसलने, नोचने, खसोटनेकी बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमातक पहुँच जाती तो वह रामसेवकके घरकी ओर मुंह करके खूब चिल्लाकर और डरावने शब्दोंमें हाँक लगाती-नेरा लोहू पीऊँगी।