पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६६

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प्रेम पूर्णिमा ६२ प्रायः रातको सन्नाटेमें यह गर्जती हुई आवाज सुनकर स्त्रियों चौंक पड़ती थीं। परन्तु इस आवाजसे भयानक उसका व्याकर हँसना था। मुन्शीजीके लहू पीनेकी कल्पित खुशीमें बह जोरसे हँसा करती थी। इस ठठानेसे ऐसी आसुरिक उद्दण्डता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रातको सुनकर लोगोंका खून ठपढा हो जाता था । मालूम होता, मानों सैकड़ों उल्लू एक साथ हॅस रहे हैं । मुन्धी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजेके आदमी थे । न उन्हें दीवानीका डर था, न फौजदारीका । परन्तु मूंगाके इन डरावने शब्दोंको सुनकर वह भी सहम जाते। हमें भनुष्यके न्यायका डर न हो, परन्तु ईश्वर के न्यायका डर प्रत्येक मनुष्यके मनमें स्वभावसे रहता है ? मूंगाका भयानक रातका धूमना, रामसेवकके मनमें कभी-कभी ऐसी ही भावना उत्पन्न कर देता। उनसे अधिक उनकी स्त्रीके मनमें। उनकी स्त्री बड़ी ही चतुर थी। वह इनको इन सब बातोंमें प्रायः सलाह दिया करती थी। उन लोगोंकी भूल थी, जो लोग कहते थे कि मुन्धीजीकी जीभपर सरस्वती विराजती हैं। यह गुण तो उनकी स्त्रीको प्राप्त थी। बोलने में वह इतनी ही तेज थी, जितना मुन्धीजी लिखने में थे और यह दोनों स्त्री-पुरुष प्रायः अपनी अवश दशामें सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए। आधी रातका समय था। मुन्शीजी नित्य नियमके अनुसार अपनी चिन्ता दूर करनेके लिये शराबके दो चार चूंट पीकर सो गये थे। यकायक मूंगाने उनके दरवाजेपर आकर जोरसे हाँक लगायी, 'तेरा लहू पीऊँगी' और खूब खिलखिलाकर हँसी।