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प्रेम-पूर्णिमा
 

मग्न भानुकुॅवरिके पास आये। परदा कराया और यह शुभ समाचार सुनाया। भानुकुॅवरिने सजल नेत्रोंसे उनको धन्यवाद दिया। पण्डितजीके नामपर मन्दिर और घाट बनवानेका इरादा पक्का हो गया।

मुन्शीजी दूसरे ही दिन उस गॉवमे गये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामीके स्वागतको हाजिर हुए। शहरके रईसोकी दावत हुई। लोगोने नावोंपर बैठकर गंगाकी खूब सैर की। मदिर आदि बनवानेके लिये आबादीसे हठकर एक रमणीक स्थान चुना गया।

[३]

यद्यपि इस गॉवको अपने नामसे लेते समय मुन्शीजीके मनमे कपटका भाव न था। तथापि दो चार दिनमें ही उसका अंकुर जम गया और घरि-धीरे बढ़ने लगा। मुन्शीजी इस गॉवकी आय व्ययका हिसाब अलग रखते और अपनी स्वामिनीको उसका व्यौरा समझानेकी जरूरत न समझते। भानुकुॅबरि भी इन बातोमें दखल देना उचित न समझती थी, पर दूसरे कारिन्दोसे ये सब बातें सुन-सुनकर उसे शंका होती थी कि कही मुन्शीजी दगा तो न देगे। वह अपने मनका यह भाव मुन्शीजीसे छिपाती थी, इस ख्यालसे कि कही कारिन्दोंने उन्हें हानि पहुॅचानेके लिये यह षड्यन्त्र न रचा हो।

इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपटके अंकुरने वृक्षका रूप धारण किया। भानुकुँवरिको मुन्शीजीके उस भावके लक्षण दिखायी देने लगे। इधर मुन्शीजीफे मनमें भी कानूनने