पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७२

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प्रेम पूर्णिमा तीन अचकन और दो कुरते बनाया करते थे। मुन्शी रामसेवक और उनकी स्त्रीने दिन भर तो यों ही कहकर अपने मनको समझाया। साँच्च होते ही उनकी तनाएं शिथिल हो गयीं। अब उनके मनपर भयने चदाई की। जैसे तैसे रात बीतती थी मय भी बढ़ता जाता था। बाहरका दरवाजा मूलसे खुला रह गया था, पर किसीकी हिम्मत न पडती थी कि जाकर बन्द तो कर आवे । निदान नागिनने हाथमें दीया लिया । मुन्शीजीने कुल्हाड़ा, रामगुलामने गड़ासा, इस ढंगसे तीनों आदमी चौकते हिचकते दरवाजेपर आये, यहॉ मुन्शीजीने बड़ी बहादुरीसे काम लिया। उन्होंने निधडक दरवाजेसे बाहर निकलने की कोशिश की। कॉपते हुए, पर ऊँची आवाजसे नागिनसे बोले-~~-'तुम व्यर्थ डरती हो, वह क्या यहाँ बैठौं है?" पर उनकी प्यारी नागिन- ने उन्हे अन्दर स्वीच लिया और झु झलाकर बोली-तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं । यह दगल जीतकर तीनों आदमी रसोईके कमरेसे आये और खाना पकने लगा। परन्तु मूंगा उनकी ऑखोंमें घुसी हुई थी। अपनी परछाहीको देखकर मूंगाका भय होता था। अन्धेरे कोनेमें मूंगा बैठी मालूम होती थी। वहीं हड्डियोका ढाँचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी ऑखे, मूंगाका नखलिख दिखायी देता था। इसी कोठरीमें आटे दालके कई मटके रखे हुए थे, वहीं कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे। एक चूहेको भूखने बेचैन किया ( मटकोंने कभी अनाजकी सूरत नही देखी थी, पर सारे गॉवमें मशहूर था कि इस घरके चूहे गजबके डाकू है ) तो वह उन दानोंकी खोजमे जो मटकोंसे कभी नहीं गिरे थे, रेगता हुआ