पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७४

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गरीबकी हाय ७१ मुन्शीजीका रोबदाब, उनकी प्रबल लेखनीका भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी। चारों ओरसे हारकर मुन्शीजी फिर अपने घर आये। यहाँ उन्हें अन्धकार ही अन्धकार दीखता था, दरवाजे तक तो आये, पर भीतर पैर नही रखा जाता था। न बाहर ही खडे रह सकते थे। बाहर मूंगा थी भीतर नागिन, जीको कडा करके हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए घरमे घुसे। उस समय उनके मनपर जो बीतती थी वही जानते थे। उसका अनुमान करना कठिन है। घरमें लाश पड़ी हुई, न कोई आगे न पीछे। दूसरा ब्याह तो हो सकता था। अभी इसी फागुनमें तो पचासवॉ लगा है। पर ऐसी सुयोग्य और मीठी बोलीवाली स्त्री कहाँ मिलेगी? अफसोस ! अब तगादा करनेवालोंसे बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरु- तर करेगा? लेनदेनका हिसाब किताब कौन इतनी खूबीसे करेगा? किसकी कडी आवाज तीरकी तरह तगादेदारोंकी छठीमें चुभेगी? यह नुकसान अब पूरा नही हो सकता। दूसरे दिन मुन्शीनी लाशको एक ठेले गाडीपर लादकर गङ्गाजीकी तरफ चले। [६] शवके साथ जानेवालोंकी सख्या कुछ भी न थी। एक स्वयं मुन्शीजी, दूसरे उनके पुत्ररत्न रामगुलामजी । इस बेइजतीसे मूंगा की लाश भी नहीं उठी थी। मूंगाने नागिनकी जान लेकर भी मुन्शीजीका पिण्ड न छोड़ा। उनके मन में हर घड़ी मूंगाकी मूर्ति विराजमान रहती