पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७५

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प्रेम-पूर्णिमा ७२ यी। कही रहते उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था। यदि दिल बहलावका कोई उपाय होता तो शायद वह इतने बेचैन न होते, पर गॉवका एक पुतला भी उनके दरयाजेकी ओर न झॉकता था। बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आपही बरतन धोते । सोच और क्रोध, चिन्ता और भय, इतने शत्रुओंके सामने एक दिमाग कबतक ठहर सकता। विशेषकर वह दिमाग जो शोज रोज कानूनकी बहसोंमें खर्च हो जाता था। अकेले कैदीकी तरह उनके दस-बाहर दिन तो ज्यों त्योकर कटे । चौदहवे दिन मुन्शीजीने कपडे बदले और बोरियाबखा लिए हुए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था। जाते ही मेरे मुअकिल मुझे घेर लेंगे। मेरी मातमपुर्सी करेंगे। मैं आँसुओंकी दो चार बूदें गिरा दूंगा। फिर बैनामों रेहननामो और सुलहनामोकी भरमार हो जायगी। मुट्ठी गरम, होगी। शामको जरा नशे-पानीका रंग जम जायगा, जिसके छूट जानेसे जी और भी उचाट हो रहा था। इन्ही विचारोंमें मग्न मुन्शीजी कचहरी पहुंचे। पर वहाँ रेहननामोंकी भरमार और बैनामोंकी बाढ़ और मुअकिलोंकी चहल पहल के बदले निराशाको रेतीली भूमि नजर आयी। बस्ता खोले घण्टों बैठे रहे, पर कोई नजदीक भीन आया। किसीने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं ! नए मुअ- किल तो खैर, बडे बडे पुराने मुअकिल जिनका मुन्शीजीसे कई पीढ़ियोंसे सरोकार था, आज उनसे मुंह छिपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान जिसको मुन्शीजी सी उड़ाते ये और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, गोपियों में कन्हैया बना