पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७६

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गरीबको हाय हुआ था। बाहरे भाग्य ! मुअक्किल यो मुँह फेरे चले जाते हैं मानी कभीकी जान पहचान ही नहीं। दिनभर कचहरीको खाक छाननेके बाद मुन्शीजी अपने घर चले। निराशा और चिन्तामें डूबे हुए ज्यों-ज्यों परके निकट आते थे, मूंगाका चित्र सामने भाता जाता था। यहॉतक कि जब घरका द्वार खोला और दो कुत्ते जिन्हे रामगुलामने बन्द कर रखा था झटपट बाहर निकले तो मुन्शीजीके होश उड़ गये, एक चीख मारकर जमीनपर गिर पडे । मनुष्यके मन और मस्तिष्कपर भयका जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्तिका नहीं। प्रम, चिन्ता, निराशा, हानि यह सब मनको अवश्य दुःखित करते हैं, यह हवाके हलके झोंके हैं और भय प्रचण्ड ऑधी है । मुन्शीजीपर इसके बाद क्या बीती मालूम नही, कई दिनोंतक लोगोंने उन्हें कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाये हुए लौटते देखा । कचहरी जाना उनका क- व्य था और यद्यपि वहाँ मुअक्किलोंका अकाल या, तौभी तगादे- वालोंमे गला छुडाने और उनको भरोसा दिलानेके लिये अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद वह कई महीनेतक देख न पड़े । बद्रीनाथ चले गये। एक दिन गॉवमे एक साधू आया, भभूत रमाये लम्बी-लम्बी जटायें, हाथमें कमण्डल, उसका चेहरा मुन्शी रामसेवकत्ते बहुत मिलता सुलता था।बोल चाल भी अधिक भेद न था। वह एक पेड़ के नीचे चूनी रमाये बैश रहा। उसी रातको मुन्शोजी रामसेवकके घरसे धू ऑ उठा, फिर आगकी ज्वाला दीखने लगी और आग मभक उठी। गॉवके सैकड़ों आदमी दौ , आग बुझाने के लिये नाही, तमाशा देखने के लिये। एक