पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७८

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दो भाई दैव दैव धाम करो तुम्हरे बालकको लगता जाई" माँ उन्हें 'चुमकारकर बुलाती और बड़े-बड़े कौर खिलाती। उसके हृदयमें प्रेमको उमंग थी और नेत्रोंमे गर्वकी झलक । दोनों, भाई बड़े हुए । साथ-साथ गलेमें बाहे डाले खेलते थे । केदारकी बुद्धि चुस्त थी। माधवेका शरीर । दोनोंमें इतना स्नेह था कि साथ साथ पाठशाला जाते, साथ-साथ स्वाते और साथ- ही पाथ रहते थे। दोनों भाइयोंका व्याह हुआ ! केदारकी बहू चम्पा अमितभाषिणी और चचला थी। माधरकी बधू श्यामा सावली सलोनी, रूपराशिकी खानि थी। बड़ीही मृदुभाषिणी, सडीही सुशीला और शान्तस्वभावा थी। केदार चम्पा पर मोहे और माधव श्यामापुर सझे। परन्तु कलावतीका मन किसीसे न मिला। वह दोनोंसे प्रसन्न और दोनोंसे अप्रसन्न थी। उसकी शिक्षादीक्षाका बहुत अंश इस- व्यर्थ के प्रयत्नमें व्यय होता था कि चम्पा अपनी कार्यकुशलताका एक माग श्यामाके शान्वस्वभावसे बदल ले। दोनों भाई सन्तानवान हुए। हरा भरा वृक्ष खूब फैला और फलोंसे लद गया। कुत्सित दृशमें केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीलासा मुरझाया हुआ। किन्तु दोनों अप्रसन्न थे। माधवको धन सम्पत्तिकी लालसा थी और केदारको सन्तान- की अभिलाषा। भाग्यको इस कूटनीतिने शनैः शनैः द्वेषका रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। इयामा अपने लडकोको सवारने सुधारने में लगी रहती ; उसे सिर उठानेकी फुरसत नहीं मिलती थी। बेचारी 'चम्पाको चूल्हेमें जलना और चक्कीमें पीसना पड़ता। यह अनीति