पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा ७८ नाई और दो ब्राह्मण माधवके दरवाजेपर पाकर बैठ गये। बेचारेके गलेमें फॉसी पड़ गयी। रुपये कहाँसे आवें, न जमीन न जायदाद, न बाग न बगीचा। रहा विश्वास, वह कभीका उठ चुका था; अब यदि कोई सम्पत्ति यी तो केवल वही दो कोठरियों, जिनमें उसने अपनी सारी आयु बितायी थी, और उनका कोई शाहक न था। बिलम्बसे नाक कटी जाती थी। विवश होकर केदारके पास आया और आँखोंमें ऑसू भरे बोला-भैया, इस समय में बड़े सङ्कटमें हूँ, मेरी सहायता करो। केदारने उत्तर दिया-मधू। आजकल मै भी तन हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ। Jचम्पा अधिकारपूर्ण स्वरसे बोली-अरे, वो क्या इनके लिये भी तंग हो रहे हैं। अलग भोजन करनेसे क्या इजत अलग हो जायगी? केदारने स्त्रीकी ओर कनखियोंसे ताककर कहा-नही नहीं, मेरा यह प्रयोजन नही था। हाथ तंग है तो क्या कोई न कोई प्रबन्ध किया ही जायगा। चम्पाने माधवसे पूछा-पाँच बीससे कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थेन! माधवने उत्तर दिया-हाँ। ब्याज सहित कोई सवा सौ रुपये होते हैं। केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गये। चम्पाने तत्वकी बातचीत शुरू की-रुपया बहुत है, हमारे पास होता वो कोई बात न थी। परन्तु हमें भी दूसरेसे दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाये-पढ़ाये रुपया देते नहीं।