पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८२

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दो भाई माधवने सोचा यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ानेको होता तो क्या और महाजन मर गये थे, तुम्हारे दरवाजे आता क्यों? बोला-लिखने-पढ़नेको मेरे पास है ही क्या ? जो कुछ जगह जायदाद है वह यही घर है। केदार और चम्पाने एक दूसरेको मर्मभेदी नयनोंसे देखा और मन-ही-मन कहा-क्या आज सचमुच जीवनकी प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी। परन्तु हृदयकी यह उमंग मुंहतक आते-आते गम्भीर रूप धारण कर गयी। चम्पा बड़ी गम्भीरतासे बोली--घरपर तो कोई महाजन कदाचित ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवईमें तो कोई सेतमें रहने- वाला भी नहीं | फिर समेकी चीज ठहरी। केदार डरे कि कहीं चम्पाकी कठोरतासे खेल बिगड़ न नाय । बोले-एक महाजनसे मेरा जान पहिचान है, वह कदा- चित कहने-सुननेमें आ जाय । चम्पाने गर्दन हिलाकर इस युक्तिकी सराहना की और बोली-पर दो-तीन बीससे अधिक मिलना कठिन है। केदारने जानपर खेलकर कहा- अरे बहुत दबानेसे चार बीस हो जायेंगे और क्या । अबकी चम्पाने तीव्र दृष्टिसे केदारको देखा और अनमनीसी होकर बोली-महाजन ऐसे अन्धे नहीं होते। माधव अपने भाई भावजके इस गुप्त रहस्यको कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इन्हें इतनी बुद्धि कहाँसे मिल गई। बोला-और रुपये कहॉस आवेंगे? चम्पा चिढ़कर बोली-और स्पयों के लिये और फिक्र करो!