पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा सवा सौ रुपये इन दो कोठरियोंके इस जन्ममे कोई न देगा, चार बीस चाहो तो एक महाजनसे दिला दू, लिखा पढ़ी कर लो। माधव इन रहस्यमय बातोसे सशक हो गया। उसे भय हुआ कि यह लोग मेरे साथ कोई गहरी चाल चल रहे हैं। हड़ताके साथ अड़कर बोला-और कौन-सी फिक्र करूँ? गहने होते तो कहता लाओ रख दूं। यहॉ तो कच्चा सूत भी नहीं है। जब बदनाम हुए तो क्या दसके लिये, क्या पचासके लिये दोनों एक ही बात है। यदि घर बेचकर मेरा नाम रह जाय तो यहॉतक तो स्वीकार है, परन्तु पर भी बेचूं और उसपर भी प्रतिष्ठा धूलमे मिले, ऐसा मैं न करूंगा। केवल नामका ध्यान है, नही एकबार नही कर जाऊँ तो मेरा कोई क्या करेगा? और सच पूछो तो मुझे अपने नामकी कोई चिन्ता नही है। मुझे कौन जानता है । ससार तो भैयाको हसेगा। केदारका मुंह सूख गया । चम्पा भी चकरा गयी। वह बड़ी चतुर वाक्यनिपुण रमणी थी। उसे माधव जैसे गॅवारसे ऐसी दृढताकी आशा न थी। उसकी ओर आदरसे देखकर बोली- लालू, कभी-कभी तुम भी लडकीकीसी बाते करते हो। भला इस झोपड़ीपर कौन सौ रुपये निकालकर देगा? तुम सवा सौके बदले सौ ही दिलाओ, मै आज ही अपना हिस्सा बेचती हूँ। उतना ही मेरा भी तो है। घरपर तो तुमको वही चार बीस मिलेंगे। हाँ, और रुपयोंका प्रबन्ध हम और आप कर देगे। इजत इमारी तुम्हारी एक ही है, वह न जाने पायेगी । वह रुपया अलग खाते में चढ़ा लिया जायगा। माधवकी वाचायें पूरी हुई । उसने मैदान मार लिया।