पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८४

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८१ दो भाई सोचने लगा, मुझे तो रुपयोंसे काम है, चाहे एक नही दस खाते में चढ़ा लो। रहा मकान, वह जीते जी नहीं छोड़तेका । प्रसन्न होकर चला। इसके जाने के बाद केदार और चम्पाने कपट भेष स्याग दिया और बढ़ी देखक एक दूसरेको इस कड़े सौदेका दोषी 'सिद्ध करनेकी चेष्टा करते रहे। अन्तमें मनको इस तरह सन्तोष दिया कि भोजन बहुत मधुर नही, किन्तु भर कठौत तो है । घर, हा देखेंगे कि श्यामा रानी इस घरमें कैसे राज करती है। केदारके दरवाजेपर दो बैल खड़े हैं। इनमें कितनी सघशक्ति, कितनी मित्रता और कितना प्रेम है। दोनों एकही जुयेमे चलते है, बस इनमें इतना ही नाता है। किन्तु अभी कुछ दिन हुए जब इनमेंसे एक चम्पाके मैके मॅगनो गया था तो दूसरेने तीन दिनतक नादमें मुंह नही डाला। परन्तु शोक, एक गोदके खेले भाई, एक छातीसे दूध पीनेवाले आज इतने बेगाने हो रहे हैं कि एक धरमें रहना भी नहीं चाहते। [४ ] प्रातःकाल था । केदारके द्वारपर गॉवके मुखिया और नंबर- दार विराजमान थे। मुन्शी दातादयाल अभिमानसे चारपाई पर बैठे रेहनका मसविदा तैयार करने में लगे थे। बारम्बार कलम बनाते और बारम्बार खत रखते, पर खतकी शान न सुधरती थी। केदारका मुखारविन्द विकसित था और चम्पा फूली नही समाती थी। माधव कुम्हलाया और म्लान था। मुखियाने कहा-भाई ऐसा हित, न भाई ऐसा शत्रु | केदार ने छोटे भाईकी लाज रख ली। ६