पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८५

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प्रेम-पूर्णिमा नम्बरदारने अनुमोदन किया-भाई हो तो ऐसा हो। मुख्तारने कहा-भाई, सपूतोंका यही काम है। दासादयालने पूछा-रेहन लिखनेवालेका नाम ! बड़े भाई बोले-माधव बल्द शिवदत्त । 'और लिखानेवालेका 'केदार वल्द शिवदत्त । माधवने बड़े भाईकी ओर चकित होकर देखा। आँखें डबडबा आयीं । केदार उसकी ओर देख न सका । नम्बरदार मुखिया और मुख्तार भी विस्मित हुए। क्या केदार खुद ही रुपया दे रहा है। बावचीत तो किसी साहूकारकी थी। जब घरहीमें रुपया मौजूद है तो इस रेहुननामेकी आवश्यकता ही क्या थी. भाई-भाई में इतना अविश्वास ! अरे, राम! राम ! क्या माधव ८०) को भी महमा है ? और यदि दवा ही बैठता तो क्या रुपये पानीमें चले जाते? सभीकी ऑखे सैन द्वारा परस्पर बाते करने लगी, मानो आश्चर्यकी अथाह नदीमें नौकाये डगमगाने लगी। श्यामा दरवाजे की चौखटपर खड़ी थी। वह सदा केदारकी प्रतिष्ठा करती थी, परन्तु आज केवल लोकरीतिने उसे अपने जेठको आड़े हाथों लेनेसे रोका। बूढी अम्माने सुना तो सूखी नदी उमड़ आयी। उसने एक वार आकाशकी ओर देखा और माथा ठोंक लिया। तब उसे उस दिनका स्मरण हुआ जब ऐसा ही सुहावना सुनहरा प्रभाव था और दो प्यारे प्यारे बच्चे उसकी गोदमें बैठे हुए उछल कूदकर दूध रोटी खाते थे। उस समय माताके नेत्रोंमें