पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८७

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८४ प्रम-पूर्णिमा अशर्फियाँ बटोर ले जाते थे। बेतवा नदी रोज बढ़कर महाराजके चरण छूने आती थी। यह प्रताप और यह तेज था, परन्तु आज इसकी यह दशा है। इन सुन्दर उक्तियोंपर किसीका विश्वास जमाना चौधरीके वचकी बात न थी पर सुननेवाले उसकी सहृदयता तथा अनुरागके जरूर कायल हो जाते थे। सुक्खू चौधरी उदार पुरुष थे, परन्तु जितना बड़ा मुंह था उतना बड़ा ग्रास न था। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पौत्र पौत्रियों थी। लड़की केवल एक गङ्गाजली थी, जिसका अभीतक गौना नहीं हुआ था। चौधरीकी यह सबसे पिछली सन्तान थी। स्त्रीके मर जानेपर उसने इसको बकरीका दूध पिला-पिलाकर पाला था। परिवार में खानेवाले तो इतने थे, पर खेती सिर्फ एक हलकी होती थी। ज्यों त्यों कर निर्वाह होता था, परन्तु सुक्खूकी वृद्धावस्था और पुरातत्व-ज्ञानने उसे गॉवमे वह मान और प्रतिष्ठा प्रदान कर रखी थी जिसे देखकर झगड, साहु भीतर ही भीतर जलते थे। सुक्लू जब गाँववालोंके समक्ष हाकिमोसे हाथ फेक- फेंककर बाते करने लगता और खण्डहरोंको घुमा फिराकर दिखाने लगता था तो झगड़, साहु, जो चपरासियोंके धक्के खानेके डरसे करीब नही फटकते थे, तड़प तड़पकर रह जाते थे। अतः वे सदा उस शुभ अवसरकी प्रतीक्षा करते रहते थे जब सुक्खूपर अपने धन द्वारा प्रभुत्व जमा सके। इस गॉवके जमीदार यकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगारके मारे गाँववालोके नाकोंदम था। उस साल जब जिला मजिस्ट