पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा ८६ जिन लोगोंके बढ़ावे में आकर सुक्खुने आकुरसे छेड़छाड़ की थी उनका दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया। ठाकुर साहबके सहने और प्यादे गाँवमे चीलकी तरह मॅडराने लगे। उनके भयमे किसीको चौधरीकी परछाही काटनेका साहस न होता था। कच- इरी यहासे तीन मीलपर थी। बरसातके दिन, रास्ते और और पानी और उमडी हुई नदियों, रास्ता कच्चा, बैलगाडीका निबाह नहीं, पैरोमें बल नही, अतः अदमपैरवीमे मुकदमा एक तरह फैसल हो गया। [२] कुर्काका नोटिस पहुँचा तो चौधरीके हाथ पॉव फूले गये। सारी चतुराई भूल गयी। चुपचाप अपनी खाटपर पडा-पढा नदीकी ओर ताकता और मनमे कहता-क्या मेरे जीते ही जी घर मिट्टीमे मिल जायगा। मेरे इन बैलोकी सुन्दर जोड़ीके गले में आह । क्या दूसरोंका जुआ पड़ेगा? यह सोचते सोचते उसकी ऑखें भर आतीं। वह बैलोंसे लिपटकर रोने लगता, परन्तु बैलोंकी ऑखोसे क्यों ऑसू जारी थे? वे नॉद्र मे मुँह क्यों नही डालते? क्या उनके हृदयपर भी अपने स्वामीके दुःखकी चोट पहुँच रही थी? फिर वह अपने झोपड़े को विकल नयनोंसे निहारकर देखता और मनमें सोचता-क्या हमको इस धरसे निकलना पड गा! यह पूर्वजोंकी निशानी क्या हमारे जीते जी छिन जायगी? कुछ लोग परीक्षामें दृढ रहते हैं और कुछ लोग इसकी हल्की ऑच भी नहीं सह सकते। चौधरी अपनी खाटपर उदास पहे. .