पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/९१

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८८ प्रेम पूर्णिमा रहे हो । क्यों नहीं घरकी चीज वस्तु हूँढ ढॉहकर किसी और जगह मेज देते ? न हो समधियाने पवा दो। जो कुछ बच रहे यही सही। घरकी मिट्टी खोदकर थोड़े ही कोई ले जायगा। चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाशकी ओर निहार कर बोला-जो कुछ उसकी इच्छा है होगा । मुझसे यह जालन होगा। इधर कई दिनकी निरन्तर भति और उपासनाके कारण चौधरीका मन शुद्ध और पवित्र हो गया था। उसे छल प्रपंचसे घृणा उत्पन्न हो गयी थी। पण्डितजी इस काममें सिद्धहस्त थे, लजित हो गये। परन्तु चौधरीके घरके अन्य लोगोंको ईश्वरेच्छापर इतना भरोसा न था। धीरे धीरे घरके बर्तन-भाड़े खिसकाये जाते थे। अनाजका एक दाना भी घरमें न रहने पाया। रातको नाव लदी हुई जाती और उधरसे खाली लौटती थी। तीन दिन तक घरमें चूल्हा न जला | बूढे चौधरीके मुंहमें अन्नकी कौन कहे पानीकी एक बूंद भी न पड़ी। स्त्रियों भाइसे चने भुनाकर चबाती और लड़के मछलियाँ भून-भूनकर उडाते, परन्तु बूढे की इस एकादशी- में यदि कोई शरीक था तो वह उसकी बेटी गङ्गाजली थी। यह बेचारी अपने बूढे बापको चारपाईपर निर्जल छटपटाते देख विलख विलखकर रोती। लड़कोंको अपने माता-पितासे बह प्रेम नहीं होता जो लङ्ग- कियोंको होता है। गङ्गाजली इस सोच-विचारमें मग्न रहती कि दादाकी किस भाति सहायता करूँ। यदि हम सब भाई-बहन मिलकर जीतनसिंहके पास जाकर दयाभिचाकी प्रार्थना करें तो वे.