पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बेटीका धन गरम करने पर भी नित्य प्रति उनकी तोदकी तरह बढ़ता ही जा रहा था तो क्या पूछना। बोले-क्या कहें चौधरीजी खर्च के मारे आजकल हम भी तबाह हैं। लेहने बसूल नहीं होते। टैक्स का रुपया देना पड़ा। हाथ बिल्कुल खाली हो गया। तुम्हे कितना रुपया चाहिये? चौधरीने कहा-सौ रुपयेकी डिगरी है। खर्च बर्च मिलाकर दो सौके लगभग समझो। झगड़, अब अपने दॉव खेलने लगे | पूछा--तुम्हारे लड़कों- ने तुम्हारी कुछ भी मदद न की। वह सब भी तो कुछ न कुछ कमाते ही हैं? साहुजीका यह निशाना ठीक पड़ा। लड़कोंकी लापरवाहीसे चौधरीके मनमे जो कुत्सित भाव भरे थे, वह सजीव हो गये। बोला-भाई, लड़के किसी कामके होते तो यह दिन ही क्यो देखना पड़ता। उन्हें तो अपने भोग विलाससे मतलब । घर गृहस्तीका बोझ तो मेरे सिर पर है। मैं इसे जैसे चाहूँ सँभालू। उनसे कुछ सरोकार नहीं, मरते दम भी गला नहीं छूटता। मरूँगा तो सब खालमे भूसा भराकर रख छोड़ेंगे। गृह कारज नाना जंजाला झगड़ने दूसरी तीर मारी -क्या बहुओंसे भी कुछ न बन पडा। चौधरीने उत्तर दिया-बहू बेटे सब अपनी अपनी मौजमे मस्त हैं । मै तीन दिनतक द्वारपर बिना अन्न जलके पड़ा था. किसीने बात भी नहीं पूछी। कहॉकी सलाह कहॉकी बातचीत। बहुओके पास रुपये न हो, पर गहने तो हैं और वे भी मेरे बन-