दूसरे देशका आदमी किसी देशमें राजा होता है, तो एक अत्याचार होता है । जो राजाके स्वजातीयं होते हैं उन्हें इस देशके लोगोंकी अपेक्षा प्रधा- नता प्राप्त होती है । उससे प्रजा दूसरी जातिके द्वारा पीड़ित होती है। जहाँ देशकी प्रजा और राजजातिकी प्रजामें इस तरहका तारतम्य हो, उसी देशको पराधीन कहेंगे । जो राज्य परजाति-पीड़नसे शून्य है वह स्वाधीन है।
अतएव परतन्त्र राज्यको भी कभी कभी स्वाधीन कहा जा सकता है। जैसे—प्रथम जार्जके राज्यकालमें हनोबर और मुगलोंके राज्यकालमें काबुल । ऐसे ही कभी कभी स्वतन्त्र राज्यको भी पराधीन कहा जासकता है। जैसे नार्मन लोगोंके समयमें इंग्लैंड और औरंगजेबके समयमें भारतवर्ष । हम कुतुबुद्दीनके अधीन उत्तर-भारतको परतन्त्र और पराधीन तथा अकबर- शासित भारतको स्वतन्त्र और स्वाधीन कहते हैं ।
वह जो कुछ हो, प्राचीन भारत स्वतंत्र और स्वाधीन था, और आधुनिक भारतवर्ष परतन्त्र और पराधीन माना जाता है। हम पहले स्वतन्त्रता और परतन्त्रतासे जो विषमता होती है उसकी आलोचना करेंगे। उसके बाद स्वाधीनता और पराधीनताके सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट करेंगे। राजाके अन्यदेशवासी होनेसे दो अनिष्ट होनेकी संभावना होती है। एक तो यह कि राजाके दूर रहने पर सुशासनमें विघ्न होता है। दूसरे यह कि राजा जिस देश में रहता है उसके प्रति उसको अधिक श्रद्धा होती है। वह उसकी भलाईके लिए दूरके राज्यकी कुछ हानिको भी स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कहा जा सकता कि भारतके संबंधमें इन दोषोंकी कुछ मात्रा नहीं देख पड़ती। इसमें सन्देह नहीं कि यदि भारतसम्राटका सिंहासन कलकत्ते या दिल्ली में होता, तो भारतवर्षकी शासनप्रणाली बहुत कुछ उत्कृष्ट होती। क्योंकि जो राजाके निकट होता है उसके प्रति राजपुरुष अधिक मन लगाते हैं । दूसरा दोष भी देखा जाता है।इंग्लैंडके गौरवके लिए अबीसीनियाका युद्ध हुआ, खर्च देना पड़ा भारतवर्षको । 'होम चार्जेज' कहकर बजटमें जो खर्चकी ' मद ' लिखी जाती है, उसमें इंग्लैंडके लिए
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