सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बंकिम निबन्धावली—
 
बाहुबल और वाक्यबल ।

तिहासमें सामाजिक दुःख दूर करनेके केवल दो उपाय कहे गये हैं- 'बाहुबल और वाक्यबल । इन दोनों बलोंके संबंधमें हमें जो कुछ कहना है, वह कहनेके पहले सामाजिक दुःखकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें कुछ कहना आवश्यक जान पड़ता है।

मनुष्यके दुःखके तीन कारण हैं ।-(१) कुछ दुःख जड़ पदार्थोंके दोषसे होते हैं। बाह्य जगत् कुछ नियमोंके अधीन होकर चलता है-कुछ शक्तियोंके द्वारा शासित हो रहा है । मनुष्य भी बाह्य जगतका एक अंश है । इस कारण उसपर भी वे ही शक्तियाँ शासन करती हैं। नैसर्गिक निय- मोंका उलंघन करनेसे रोग आदि कष्ट देते हैं, भूख-प्यास पीड़ा पहँचाती है और अनेक प्रकारके शारीरिक व मानसिक दुःख भोगने पड़ते हैं। (२) बाह्यजगतकी तरह अन्तर्जगत् भी मनुष्यके और एक दुःखका कारण है। कोई पराई बढ़ती देखकर सुख पाता है और कोई दुःख पाता है। कोई इन्द्रियसंयमसे सुखी होता है और किसीके लिए इन्द्रियसंयम घोर दुःख है। पृथ्वीके सब काव्यग्रन्थोंका आधार इसी श्रेणीका दुःख ही है । (३) मनुष्यके दुःखका तीसरा कारण समाज है । मनुष्य सुखी होनेके लिए समाजबन्धनमें पड़ता है । परस्परकी सहायतासे परस्पर अधिक सुखी होनेकी आशासे सब मिलकर रहते हैं। इससे विशेष उन्नति अवश्य होती है, किन्तु बहुत अमंगल भी होते हैं । समाजमें दुःख भी है । दारिद्यका दुःख सामाजिक दुःख है । जहाँ समाज नहीं है, वहाँ दारिद्य भी नहीं है।

कुछ सामाजिक दुःख समाजकी स्थापनाके ही फल हैं—जैसे गरीबी। जैसे प्रकाशके साथ अन्धकार अवश्य होता है वैसे ही दारिद्य आदि कुछ दुःख भी समाजके साथ लगे हुए हैं *। इन सब सामाजिक दुःखोंका.

_________________________________________________________________

* प्रकाश और छायाकी उपमा संपूर्ण और शुद्ध है। यह सत्य है, कि हम अपने मन में ऐसे एक जगतकी कल्पना कर सकते हैं, जहाँ प्रकाशक सूर्यके

९६