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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२९

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बंकिम-निबन्धावली—
 

सत्य क्या सर्वत्र पालनीय है ? इसके उत्तरका निर्णय करनेके पहले प्रश्न यह है कि सत्य-पालनीय क्यों है ? सत्य-पालनकी एक जड़ धर्म-नीतिमें है और एक जड़ आत्मसंस्कार-नीतिमें है। हम आत्मसंस्कार-नीतिको धर्म- नीतिका अंश मानना अस्वीकार कर चुके हैं, इससे धर्म-नीतिका मूल ही देखेंगे। विशेष बात यह है कि दोनोंका फल एक ही है । धर्म-नीतिका मूलसूत्र यह है कि जिससे दूसरेका अनिष्ट हो वह अकर्तव्य है। सत्य पालन न करनेसे दूस- रेका अनिष्ट होता है, इस लिए सत्य पालनीय है । किन्तु जब सत्य-पालनसे दूसरेका भारी अनिष्ट होता हो, और सत्यका पालन न करनेसे वैसा न होता हो, तब सत्य पालनीय नहीं। दशरथके सत्यपालनसे रामका भारी अनिष्ट हुआ, और सत्यका पालन न करनेसे कैकेयीका वैसा कुछ अनिष्ट न होता । रहा दृष्टान्त-स्वरूपसे जनसमाजका अनिष्ट, सो रामको उनके अधिकारसे भ्रष्ट करने में ही उसकी आशंका अधिक है। यह तो दस्युताका रूपान्तर कहा जा सकता है। अतएव ऐसी जगहपर दशरथने सत्यका पालन करके ही महापाप किया।

यहाँपर दशरथ स्वार्थपरतासे खाली नहीं हैं । सत्यभंग होनेसे जगतमें उनके कलंककी घोषणा होगी, इसी भयसे उन्होंने रामको उनके अधिकारसे च्युत और बहिष्कृत कर दिया। अतएव यशोरक्षारूप स्वार्थके वशीभूत होकर उन्होंने रामका अनिष्ट किया। सच है कि उन्होंने अपने प्राणोंकी हानि भी स्वीकार की, किन्तु उनके निकट प्राणोंकी अपेक्षा यश ही प्रिय था। अतएव उन्होंने अपने इष्टकी ही रक्षा की। इस लिए वे स्वार्थपर हैं। स्वार्थपरताके दोषसे युक्त पराया अनिष्ट निस्सन्देह घोरतर महापाप है।

अस्वार्थपर प्रेम और धर्मकी एक ही गति और एक ही परिणति है। दोनोंका साध्य दूसरेका मंगल है। वास्तवमें प्रेम और धर्म एक ही पदार्थ हैं। सब संसार जब प्रेमका विषय हो जाता है तब वह प्रेम ही धर्म नामको प्राप्त होता है। धर्म जबतक सार्वजनिक प्रेमके रूपको धारण नहीं करता, तब-तक वह संपूर्णताको नहीं प्राप्त होता। किन्तु मनुष्योंने कार्यतः स्नेहको धर्मसे अलग कर रक्खा है, अतएव प्यारका अत्याचार रोकनेके लिए धर्मके द्वारा स्नेहपर शासन होनेकी आवश्यकता है।

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